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“गिल्ली मिट्टी-सा मन कब पत्थर बन जाता हैं
पता ही नहीं चलता इस मतलबी सी दुनिया में”
क्यों असंवेदनशील होते जा रहे हैं हम ? अच्छा सवाल हैं ..और इसका जवाब जानना जरूरी भी हैं। मेरी माने तो आजकल लोग असंवेदनशील उन किस्सों को सुन-सुन कर और महसूस कर के हो गये हैं, जिनमें बेचारे और लाचार बन कर लुटा जाता हैं।
“रहम-रहम दिखाते-दिखाते कब खुद पर रहम आने लगता है
पता हीं नहीं चलता इस मतलबी सी दुनिया में”
इसलिए इन्सान अब मद्द करने से डरने लगा हैं। और अब ये ड़र जाने का नाम हीं नहीं ले रहा।
“मन का डर रोक लेता हैं
किसी की भलाई करने से
कब कोई ठग जाये
झुठे आँसु आँख में भर के”
इसके अलावा भी बहुत से कारण हैं, जैसे की आज कि दुनिया में सच सुनना कौन चाहता हैं। इन्साफ़ भी उसकी झोली में गिरता हैं, जिसके पास लुटाने के लिए रूपया हो या दिखाने के लिए ताकत। सच्चाई का क्या हैं ….ना वो किसी को रूपया दे सकती और ना हीं आगे बढ़ने का मौका ….
“धन्धा सा बन गया अत्याचारों का तो
मार बैठे इन्सानियत
बन बैठे शैतान ”
कहीं ना कहीं प्रशासन कि लापरवाही ने भी इन्सान को असंवेदनशील बना दिया हैं क्योंकी इन्साफ़ माँगते-माँगते लोग इतना थक चुके है की, खुद हीं अपने तरीके से इन्साफ़ करना चाहते हैं। इस सब को देखकर बीते दिनों कि चन्द लाईने याद़ आती है- “भला किसी का कर ना सको तो बुरा किसी का मत करना……” शायद इसी से थोड़ी संवेदना और इन्सानियत बची रहें ।
“पहले भर आती थी आँखे किसी के भी दर्द पर
अब तो भरोसा करना भी लगता फिजूल हैं
पर थोड़ी इन्सानियत दिल में हो तो अच्छा हैं
वरना तो सब कुछ बेमानी-सा हीं हैं”
by- mywords”amy”
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